
सियासत दर्पण न्यूज़,के.आसिफ़ की मुगल-ए-आज़म को जिन कई वज़हों के लिए याद किया जाता है, उसमें डायलॉग भी हैं.डायलॉग्स की भी बहुत अहमियत है. हम लोग कहते थे, वाह! क्या डायलॉगबाज़ी है यार! ये डायलॉग आम ज़िन्दगी में जुमले भी बने थे. हम याद दिलाने की इजाज़त चाहते हैं कि आसिफ़ के राइटर्स की फौज ने हर डायलॉग पर कई कई दिन तक बहुत मेहनत किया तब जाकर डायलॉग ज़ोरदार बना और हाल तालियों से गूँज उठा. ज़रा याद करें उस नज़ारे को जब अनारकली को बादशाह अकबर मौत का हुक्म सुनाते हैं और सेनापति मान सिंह अनारकली से कुछ यूं कहते हैं – बादशाह के निज़ाम का ये दस्तूर है कि मरने वाले की आख़िरी आरजू पूरी की जाये.
अनारकली कहती है – साहिबे आलम (सलीम) मुझे मलिका बनाना चाहते थे, मेरी आरजू है कि मरने से पहले मुझे मलिका बनाया जाए.
बादशाह अकबर तंज कसते हैं – आख़िर तेरी कमज़र्फी मौत के ख़ौफनाक साये के बावजूद तेरी जुबां पर आ ही गयी.
उदास अनारकली कहती है – साहिबे आलम ने मुझे मलिका बनाने का वायदा किया था और मेरी आरज़ू है कि हिंदुस्तान के होने वाले शहंशाह पर वादा ख़िलाफ़ी का इलज़ाम न लगे.
बादशाह अकबर लाजवाब हो जाते हैं – ठीक है, हम हिंदोस्तान के होने वाले बादशाह को शर्मिंदा नहीं होने देंगे. लेकिन याद रखो, तुम्हें मरना ही होगा अनारकली.
अनारकली बुझे लहज़े में कहती है – कनीज़ तो बहुत पहले से ही मर चुकी है…. यह कहते हुए वो चेहरे को दुपट्टे से ढक लेती है – अब जनाज़ा निकलने की इजाज़त दीजिये.
बादशाह अकबर अनारकली के सर पर मलिका ए हिंदुस्तान का ताज रखते हुए ताक़ीद करते हैं – सहर होने से पहले इस फूल की खुशबू को सलीम को सुंघाना होगा ताकि वो हमेशा हमेशा के लिए भूल जाए कि अनारकली का कभी कोई वज़ूद भी था. और अगर ऐसा न हुआ तो याद रहे, सलीम तुम्हें मरने नहीं देगा और अनारकली हम तुम्हें जीने नहीं देंगे.
स्क्रिप्ट के मुताबिक यहां सीन ख़त्म होना था. लेकिन आसिफ़ को कुछ खटक रहा था, कहीं कोई कमी लग रही है. अनारकली आख़िर एक पावरफुल औरत है, कनीज़ है तो क्या हुआ? उसने मोहब्बत की है, हिंदुस्तान के होने वाले बादशाह से. और मोहब्बत करने वाली औरत कमज़ोर नहीं होती. कुछ ऐसा जवाब अनारकली के मुंह से निकलना चाहिए कि अकबर जैसा पॉवरफुल बादशाह लाजवाब हो जाए. और दुनिया भी इसे याद रखे.
इल्म-ओ-अदब से गहरा रिश्ता रखने वाले अम्मान साहेब, एहसान रिज़वी साहेब और वज़ाहत मिर्ज़ा साहेब जैसे धुरंधर फिर से माथा-पच्ची करने बैठ गए. कई कागज़ रंग डाले. ऐसे डिसकशंस में आख़िरी बाज़ी अक्सर वज़ाहत मिर्ज़ा साहेब के ही हाथ रहती थी. उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ. मिर्ज़ा ने कागज़ पर कुछ लिख कर आसिफ़ को थमा दिया.
आसिफ़ बोले – मिर्ज़ा, बाआवाज़-ए-बुलंद पढ़ा जाए.
मिर्ज़ा साहेब ने पढ़ा – शहंशाह की तमाम बक्शीशों के बदले में ये कनीज़ जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर को अपना खून माफ़ करती है.
और आसिफ़ ने मिर्ज़ा को गले लगा लिया.
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